रविवार, 4 सितंबर 2016

चले चांदनी चौक

चले चांदनी चौक,श्री राज जी की बेशक वाणी बार बार पुकार रही हैं आइये अपने निजधाम
अरस आगूं खुली चांदनी, माहें चबूतरे चार ।
दोए तलें बीच बनके, दो ऊपर लगते द्वार ।। ८।।प्र २० परिक्रमा 

श्री महामति परिक्रमा ग्रन्थ के २० प्रकरण में अर्श के आगे अर्थात रंगमहल की पूर्व दिशा जहाँ धाम दरवाजा की अपार शोभा आयीं हैं ,उसके आगे की खुली चांदनी का विहंगम वर्णन कर रहे हैं --भोम भर ऊंचे चबूतरे पर शोभित रंगमहल का मुख्य द्वार पूर्व दिशा में शोभयमान हैं --द्वार के आगे ही अमृत वन के तीसरे हिस्से में १६६ मंदिर का लंबा चौड़ा एक सामान चौक आया हैं जिसके ऊपर खुला आकाश हैं --यही कारण हैं कि इस चौक को चांदनी चौक के नाम से शोभा मिली हैं -धाम दरवाजे के आगे चांदनी चौक में दो मंदिर की जगह ले कर सीढियां उतरी हैं --सीढ़ियों के आगे चांदनी चौक में दो मंदिर की रोंस अमृत वन के मध्य से होती हुई पात घाट तक गयी हैं --

इन नूरमयी रोंस के दोनों और ठीक मध्य भाग में दो चबूतरे जमीन से तीन सीढ़ी ऊंचे आएं हैं --इन चबूतरों के मध्य में दो भोम तीसरी चांदनी के अति सुन्दर शोभा से जगमगाते वृक्ष आएं हैं --


श्री महामति जी यह शोभा रूहों को धाम दरवाजे के खड़े कर के दिखा रहे हैं --तो आत्मिक दृष्टि बादशाही दरवाजों से भी कोट गुनी शोभा से सुखदायी झलकार करते धाम दरवाजे के सम्मुख खुद को महसूस कीजिये --आपके दोनों हाथ अर्थात धाम दरवाजे के दोनों और चबूतरे आये हैं --इन दोनों चबूतरों के मध्य से धाम की सीढियां उतरे --सीढियां अति कोमल ,नरम ..उतरते समय नरम गिलम में पाँव घुटनों तक धंस रहे हैं --सीढियां उतर कर चांदनी चौक की मध्य दो मंदिर की रोंस पर आये -रोंस के दोनों चांदनी चौक अति उज्जवल ,नरम सुगन्धित रेती हैं मानो हीरा ,माणिक ,मोती बिखरे हैं --और चबूतरों की अपार शोभा --धाम से देखे तो आपकी बायीं आओ लाल वृक्ष की शोभा हैं और दाएं हाथ को हरे वृक्ष की शोभा हैं
इन मोहोलो सुख क्यों कहूं, आगूं बडे दरबार ।

हक हादी सुख इन कठेडे, देत बैठाए बारे हजार ।। ९।।प्र २० परिक्रमा 

रंगमहल के मुख्य द्वार ,धाम दरवाजा के सामने आएं दरबार के सुख कैसे कहे जाए ? यह तो निज धाम रंगमहल के अखंड सुख हैं जो धाम धनी अपनी रूहों को पल पल अखंड सुखों में भिगोते हैं ।रंगमहल के दोनों और चबूतरे आयें हैं जिन्हें बड़े दरबार  कहा हैं --इन बड़े दरबार के चांदनी चौक की तरफ कठेड़े  आएं हैं -इन चबूतरों पर श्री राज श्यामा जी बारह हजार सखियों को लेकर चबूतरों पर विराजते हैं और सामने भोम भर नीचे आएं चांदनी चौक में पशु पक्षियों के जुथ के जुथ उमड़ते हैं और तरह तरह के खेल कर रूहों को रिझाते हैं
आगूं इन मोहोलों खेलौने, खेल करत कला अपार ।

नाम जुदे जुदे तो कहूं, जो कहूं आवे माहें सुमार ।। १०।।

रंगमहल के आगे मनोहारी शोभा लिये चांदनी चौक में नूरी पशु-पक्षी तरह तरह की लीलाएं कर खेल करते हैं ,कोई प्रेममयी क्रिड़ाए कर तो कूद कर तो कभी प्रेम रस से भरी लड़ाई कर युगल स्वरूप को रिझाते हैं --इन नूरी पशु पक्षियों के नाम तो तब बताए जा सकते हैं जब उनकी कोई गणना हो

ए सुख लें अरवा अरस की, हक हादी संग निसदिन ।
ए जाहेर किया इत हुकमें, वास्ते हम मोमिन ।। ११।।

श्रीराज श्रीश्यामा के साथ रूहें प्रतिदिन अर्श के अखंड सुखो का रसास्वादन करती हैं ।इन अखंड सुखों की पहचान हम ब्रह्म सृष्टियों के वास्ते ही श्री राज जी ने हुकुम से कराई है ।
चारों हांसो खुली चांदनी, तीनों तरफों बन बराबर ।
तरफ चौथी झरोखे अरस के, सोभे आगूं चबूतर ।। १२।।

रंगमहल के मुख्य द्वार के सामने 166  मंदिर का लंबा चौड़ा एक सामान चौरस चौक हैं ।खुले आकाश से युक्त यह चौक चांदनी चौक कहलाता हैं ..इसके पूर्व उत्तर और दक्षिन दिशा में अमृत वन के वृक्ष लगे हैं और पश्चिम में परमधाम के झरोखे आयें हैं 

तलें जो दोऊ चबूतरे, वृख लाल हरा तिन पर ।
ए वृख द्वार चबूतरे, नूर रोसन करत अंबर ।। १३।।

चांदनी चौक में जो दो चबूतरे आएं है उन पर लाल (उत्तर में ) और हरे (दक्षिण ) पैड़ की शोभा है !इन नूरी वृक्षों ,रंगमहल का मुख्यद्वार और चबूतरों का नूर आकाश तक जगमगाता है

इत जोत जिमी की क्यों कहूं, हुओ आकास जिमी एक ।
सोभा क्यों कहूं आगूं अरस के, जानों सबसे एह विसेक ।। १४।।

परमधाम की दिव्य ज़मीन की जोत की क्या कहें ?ऐसा प्रतीत होता है मानो ज़मीन और आकाश एक हो गये हों -रंगमहल के सामने की शोभा का क्या कहूँ ?आत्म महसूस करती है यही शोभा सबसे उत्तम है

आगूं अरस चबूतरे, हम सखियां बैठत मिलकर ।
ए सुख हमारे कहां गए, खेलत नाचत बांदर ।। १५।।

रंगमहल के सामने आए इन चबूतरो पर हम सखियां मिलकर बैठती है ।हमारे सामने अर्श के नूरी बंदर खेलते हैं और नृत्य कर हमें प्रसन्न करते हैं।यह अखंड सुख हमारे कहां गये?

इत तखत कदेले कुरसियां, बैठें रूहें बारे हजार ।
सुख इतके हमारे कहां गए, मोर नचावनहार ।। १६।।

इन चबूतरो पर पशमी गिलम बिछी है जिन पर सिंघासन और कुर्सियां आई हैं जिन पर हम बारह हज़ार ब्रह्म प्रियाएं बैठ कर मोरों  की अदभुत नृत्य कला के आनंद लेती हैं ।यह सुख हमारे कहां गये ?

हक हमारे इत बैठके, कै विध करें मनुहार ।
कै पसू पंखी अरस के, इत सुख देते अपार ।। १૭।।

हमारे प्राण प्रियतम यहां हमारे साथ बैठकर हमे कई प्रकार से आनंदित करते हैं और यहां अरशे अज़ीम के कई पशु पक्षी अपनी कलाओं से सुख देते हैं ।

सुख सब पसू पंखियन के, कै खेल बोल दें सुख ।
ए आगूं अरस आराम के, क्यों कर कहूं इन मुख ।। १८।।

पशु -पक्षी अपनी कलाओं से खेलकर और मीठी बानी बोलकर रंगमहल के सामने तरह तरह के सुख देते हैं।संसार के इन मुख से अखण्ड की शोभा कैसे कहें ?

कबूं एक एक पसू खेलत, कबूं एक एक जानवर ।
ए सुख अरस अजीम के, सुपन जुबां कहे क्यों कर ।। १९।।

कभी कभी ऐसा भी होता है कि वर्ग विशेष के एक ही जाति के पशु या पक्षी खेल दिखाते हैं।यह सुख अरशे अज़ीम के हैं स्वपन की ज़ुबान से कैसे वर्णन करें ?

कै बांदर बाजे बजावहीं, आगूं अरस के नाचत ।
ए सुख हमारे कहां गए, हम देख देख राचत ।। २०।।

रंगमहल के सामने चांदनी चौक में बंदर तरह तरह के बाजे बजाते हैं और मोहक नृत्य पेश करते हैं जिन्हे देख देख कर हमारे अंग अंग में उल्लास छा जाता है ।यह सुख हमारे कहां गये ?

इत कै विध पसू खेलत, कै खेलत हैं जानवर ।
खेल बोल नाच देखावहीं, कै हंसावत लड कर ।। २१।।

यहां चांदनी चौक में पशु -पक्षी कई प्रेममई खेल खेलते हैं। मीठी मीठी आवाज़े निकाल कर तो कभी अद्‍भुत नृत्य दिखाकर हमे रिझाते हैं ।कुछ तो लीला रूप में लड़ाई कर हँसाते हैं।

हक हादी रूहें चांदनी बैठत, ऊपर होत बखत मलार ।
मोर बांदर दादुर कोकिला, सुख देत कर टहुंकार ।। २२।।

हक श्री राज ,श्री श्यामा जी और रूहें चांदनी चौक में बैठते हैं उन समय मनभावन बरखा होने लगती है।ऐसे सुहावने मौसम में मोर ,बंदर ,मेंढक और कोयल अपनी मीठी आवाज़ से प्रसन्न करते हैं ।


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