रविवार, 16 अक्तूबर 2016

एही अपनी जागनी

                         इन विध साथजी जागिए, बताए देऊं रे जीवन ।
स्याम स्यामाजी साथजी, जित बैठे चौक वतन ।। १ ।।७ सागर 

सागर ग्रन्थ के सातवें प्रकरण में श्री राज जी श्री महामति जी के धाम ह्रदय से ब्रह्म सृष्टियों को जागृत होने की कला समझा रहे हैं --

हे मेरे प्यारे साथ जी ,मैं अब आपको किस प्रकार जागृत होना हैं ,उसकी विधि दिखाता हूँ --श्री रंगमहल की प्रथम भूमिका के पांचवें चौक मूल मिलावा में चौसठ थम्भ चबूतरा पर नूरमयी कंचन रंग के सिंहासन पर युगल स्वरूप ,अक्षरातीत श्री राज-श्याम जी विराजमान हैं ,उनके चरणों तले दाड़िम की कलियों के सामान एक रूप ,एक तन होकर आपके मूल स्वरूप ,आपकी परआत्म बैठी हैं --इन शोभा को अपने धाम ह्रदय में बसा कर अपनी आत्मा को जागृत कीजिए

याद करो सोई साइत, जो हंसने मांग्या खेल
सो खेल खुसाली लेय के, उठो कीजिए केल ।। २ ।।

हे मेरे साथ जी ,याद कीजिए वह  पल ,वह घडी ,जब आपने अक्षरातीत श्री राज जी से हांसी का खेल माँगा था ,धनी ने फेर फेर मना किया पर हमने खेल को अति सरस मान फेर फेर खेल माँगा।हमारे दिल में यह उमंग थी कि यह खेल भी वैसे ही अच्छा होगा ,मनभावन होगा जैसे कि परमधाम के खेल ,क्रीड़ाएं होती हैं तब धाम धनी ने हमें पहले से ही सावधान किया कि  माया के खेल में जाकर आप खुद को ,अपने खसम अर्थात मुझ को भूल जाओगी ,तुम्हें घर की जरा भी सुध नहीं रहेगी ,-

तब रूहों ने जवाब दिया कि हम अपने वतन अखंड परमधाम को क्यों कर भूलेंगे और खुद को भी कैसे भूलेंगे ? क्या यह खेल इतना सरस है?
 हे मेरे धनी ! हम तो हमेशा आपके चरनो को पकड़ के बैठेंगे -आपसे तो हमारा अटूट प्रेम का पवित्र अखंड नाता है तो आपको तो भूलने का प्रश्‍न ही नही उठता ।

तो साथ जी ,आपने दिल में उमंग लेकर खेल माँगा था ,तो आपका यह कर्तव्य हैं कि खेल के आनंद को लीजिए ,धाम धनी आपके वास्ते सब विध वतन सहित आएं हैं ,आठों सागरों के सुख यहां मिलते हैं ,परमधाम के द्वार खुल गएँ हैं उनके बेशक वाणी से ...जागृत होकर धाम धनी श्री राज जी के संग परमधाम में हान्स विलास कीजिए

सुरत एकै राखियो, मूल मिलावे मांहिं ।
स्याम स्यामाजी साथजी, तले भोम बैठे हैं जांहिं।। ३ ।।

जागृत होने का मार्ग क्या हैं ?

बस हमें एहि करना हैं कि अपनी निजनजर ,अपनी सूरत को मूल मिलावे में धाम धनी के चरणों से जोड़े जहाँ प्रथम भूमिका की पांचवीं गोल हवेली (मूल  मिलावा ) में चबूतरे के ऊपर श्रीराज-श्यामा जी सिंघासन पर विराजमान है और सभी सखियाँ चबूतरे पर भरकर बैठी हैं 

साथ जी ,इन स्वप्न की जिमी पर आ कर आप धाम धनी श्री राज जी के सुख भूल गए हैं  ।अब श्री राज जी बेशक इल्म के माध्यम से फेर फेर धाम के अखंड सुख याद दिल रहे हैं ।मुलमिलावे की अखंड बैठक याद करा रहे हैं  ।

सागर पहला नूर का

 श्री महामति सागर ग्रन्थ के पहले ही प्रकरण में मुलमिलावे का वर्णन कर रहे हैं ।सर्वप्रथम वर्णन हुआ हैं -मुलमिलावे के मध्य में आयें चौसठ थम्भ चबूतरा का 

साथ जी ,याद करें ,यह वहीं चबूतरा हैं जिस पर कंचन रंग के नूरी सिंहासन पर श्री राज-श्यामाजी विराजमान हैं और हम सब सखियाँ उनसे अंग से अंग लगा कर बैठी हैं ।अपनी बैठक को दिल में ले --फेर फेर युगल स्वरूप के सिंगार को दिल में ले --चितवन से उनका दीदार करे --

एही अपनी जागनी , जो याद आवे निज सुख ।
इसक याहीसों आवहीं, याहीसों होइए सनमुख ।।

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